Chilly Diseases Control |मिर्ची के महत्वपूर्ण रोग एवं प्रबंधन | Perfect Mirchi Ke Rog ka Control 2023

Chilly Diseases Control

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Chilly Diseases Control मिर्ची के महत्वपूर्ण रोग एवं प्रबंधन

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सब्जी वाली फसलों में मिर्च एक प्रमुख स्थान रखती है। इसका प्रयोग सब्जी, मसाले और अचार के रूप में प्रतिदिन किसी ने किसी रूप में सम्मिलित रहता है। पिछले कुछ वर्षों से हाईब्रिड मिर्च किस्मों के प्रचलन से भले ही आमदनी में काफी मुनाफा हुआ हो तथा यह किस्में विषाणु रोगों से बचाव में भले ही सक्षम हो परन्तु रोगों व कीड़ों से मिर्च फसल को काफी नुकसान होता है। इस लेख में मिर्च की फसल के मुख्य रोग व उनकी रोकथाम के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा रही है:

 

  1. आद्र गलन (डेम्पिंग ऑफ): इस रोग का प्रकोप मिर्च की नर्सरी में भूमि जनित फफूदी के कारण होता है। यह रोग नर्सरी में नवजात पौधों को भूमि की सतह पर आक्रमण पहुंचाता है। रोग से पौधे अंकुरण से पहले और बाद में भी मर जाते हैं। ग्रसित पौधे सूख कर जमीन की सतह पर गिर जाते है। पानी की अधिकता से रोग की उग्रता बढ़ जाती है।

 

रोकथाम:

  • बुआई के लिए शुद्ध व स्वस्थ बीज काम में लेना चाहिए।
  • बुआई से पूर्व बीज का थिराम या कैप्टान या बाविस्टिन 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचार करके बोना चाहिए।
  • नर्सरी में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
  • नर्सरी में पौध उगने पर क्यारियों को 0.2 प्रतिशत (2 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी) कैप्टान या बाविस्टिन के घोल से सिंचाई करनी चाहिए।

 

2.  फल का गलना व टहनी मार रोग: यह रोग कोलेटोट्राइकम नामक फफूंद से होता है। पौधे की टहनी ऊपर से सूखना शुरू करती है व नीचे तक सूखती चली जाती है। इस रोग के प्रकोप से फलो पर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं तथा बाद में फल गलने लगता है। परिपक्व फलों पर भूरे धब्बे बड़े होकर चक्र का रूप धारण कर लेते हैं तथा उनका रंग काला हो जाता है।  रोकथाम:·   बुवाई से पूर्व थिराम या कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति किलो के हिसाब से बीज का उपचार करें।·   रोग के लक्षण दिखाई देते ही 400 ग्राम कापर अक्सीक्लोराईड या जिनेब या इण्डोफिल एम-45 को 200 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें। आवश्यकता पड़ने पर 10-15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव दोहरायें।

 

  1. जीवाणु धब्बा रोग: यह रोग एक प्रकार के जीवाणु जैन्थोमोनास से फैलता है। रोग के कारक बीज व बीमार पौधे के अवशेषों में विद्यमान रहते हैं। रोग के प्रकोप से छोटे छोटे भूरे उभार युक्त धब्बे बन जाते हैं। इन धब्बों के चारों ओर पीला घेरा बन जाता है। नमी युक्त मौसम में रोग का फैलाव अधिक होता है व नई शाखओं पर भी आक्रमण देखा जा सकता है।

 

रोकथाम:

  • स्वस्थ फसल से बीज लेकर ही बुवाई करें।
  • रोग के लक्षण दिखाई देते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 6-8 ग्राम दवा को 200 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ छिड़काव करना चाहिए।
  • मिर्च की तुडाई के बाद रोग ग्रस्त पौधों के अवशेषों को जला देना चाहिए।

 

  1. मिर्च का सूखा रोग: मिर्च का यह सबसे खतरनाक रोग है जिससे पैदावार में भारी नुकसान होता है। आमतौर पर यह रोग उन खेतों में आता है जिन खेतों में हर वर्ष मिर्च की खेती की जाती है। क्योंकि इस भूमि जनित फफूद के बीजाणु पहले से ही खेतों की मिट्टी में विद्यमान होते हैं जो कि अगले वर्ष फसल में इस रोग का कारण बनते हैं। रोपाई से लेकर फसल की पूरी अवधि में किसी भी अवस्था में इस रोग के लक्षण पौधों पर देखे जा सकते हैं। शुरू में पौधों के नीचे वाली पत्तियां पीली पड़ कर नीचे गिर जाती हैं। यह बीमारी नीचे से आरम्भ होकर ऊपर की तरफ बढ़ती है। कुछ ही दिनों में सारा पौधा या पौधे का कुछ भाग बिल्कुल खत्म हो जाता है। इस रोग के लक्षण प्रायः शुरू में सारे खेत की बजाए चकतों में देखने को मिलते हैं जो धीरे-2 बाद में सारे खेत को अपनी चपेट में ले लेती है।

रोकथाम:

  • बिजाई से पूर्व थिराम या कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति किलो के हिसाब से बीज का उपचार करें। जिन खेतों में यह रोग अक्सर आता है वहां लम्बा फसल चक्र अपनाएं।
  • मई-जून के महीनों में रोगग्रस्त खेतों की गहरी जुताई करें।
  • रोग के लक्षण दिखाई देते ही बाविस्टिन 0.2 प्रतिशत फफूंदनाशी का घोल बनाकर रोगग्रस्त चकतों की सिंचाई करें।
  1. विषाणु रोग: इस रोग के प्रकोप से पौधों की बढ़वार रूक जाती है। पत्तियां छोटी, मोटी व मुडी हुई हो जाती है। मौजेक में पत्तियों के ऊपर कहीं पर हल्के पीले व कहीं पर गहरे हरे धब्बे बन जाते हैं। पौधा छोटा व गुच्छे का रूप धारण कर लेता है। संक्रमित पौधों पर फूल व फल कम लगते हैं तथा आकार में भी छोटे रहते हैं। रोगों का प्रसार सफेद मक्खी, एफिड व थ्रिप्स द्वारा स्वस्थ पौधों पर होता है।

रोकथाम:

  • स्वस्थ और रोग रहित बीज लें।
  • बीमारी फैलाने वाले कीड़ों का नर्सरी व खेतो में रोकथाम करें। 400 मिलि लीटर मैलाथियान 50 ईसी. को 200-250 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड छिड़काव करें तथा 10-15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव दोहराये।
  • रोगग्रस्त पौधों को शुरू में ही ध्यानपूर्वक निकालकर दबा दें।

 

सावधानियां:

  • दवाओं के घोल में किसी चिपकने वाले पदार्थ टीपाल या सेंडोविट 60-70 मिलीलीटर प्रति 100 लीटर पानी के हिसाब से अवश्य मिला लें।
  • छिड़काव हमेशा बारीक फुव्वारें से करें।
  • छिड़काव करने से पहले फल अवश्य तोड़ लें।

आदित्य*, डॉ. आर एस जरियाल एवं  डॉ. कुमुद जरियालपादप रोग विज्ञान विभागडॉ. वाई. एस. परमार बागवानी एवं  वानिकी विश्वविद्यालयबागवानी एवं  वानिकी महा विद्यालय, नेरी (हमीरपुर), हिमाचल प्रदेश-177001

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