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भारत में चने की खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान तथा बिहार में की जाती है। देश के कुल चना क्षेत्रफल का लगभग 90 प्रतिशत भाग तथा कुल उत्पादन का लगभग 92 प्रतिशत इन्ही प्रदेशाें से प्राप्त होता है। भारत में चने की खेती 7.54 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है जिससे 7.62 क्विं./हे. के औसत मान से 5.75 मिलियन टन उपज प्राप्त होती है। भारत में सबसे अधिक चने का क्षेत्रफल एवं उत्पादन वाला राज्य मध्यप्रदेश है तथा छत्तीसगढ़ प्रान्त के मैदानी जिलो में चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है।
चना एक शुष्क एवं ठण्डे जलवायु की फसल है जिसे रबी मौसम में उगाया जाता हे। चने की खेती के लिए मध्यम वर्षा (60-90 से.मी. वार्षिक वर्षा) और सर्दी वाले क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त है। फसल में फूल आने के बाद वर्षा होना हानिकारक होता है, क्योंकि वर्षा के कारण फूल परागकण एक दूसरे से चिपक जाते जिससे बीज नही बनते है। इसकी खेती के लिए 24-300सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है। फसल के दाना बनते समय 30 सेल्सियस से कम या 300 सेल्सियस से अधिक तापक्रम हानिकारक रहता है।
भूमि की तैयारी:
चने की खेती दोमट भूमियों से मटियार भूमियों में सफलता पूर्वक किया जा सकता है। चने की खेती हल्की से भारी भूमियों में की जाती है। किन्तु अधिक जल धारण एवं उचित जल निकास वाली भूमियॉ सर्वोत्तम रहती हैं। छत्तीसगढ़ की डोरसा, कन्हार भूमि इसकी खेती हेतु उपयुक्त हैं। मृदा का पी.एच. मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है।
अंसिचित अवस्था में मानसून शुरू होने से पूर्व गहरी जुताई करने से रबी के लिए भी नमी संरक्षण होता है। एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा 2 जुताई देशी हल से की जाती है। फिर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लिया जाता है। दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास मिलाना चाहिए इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है।
छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश के लिए अनुशंसित किस्म:
इंदिरा चना -1 : यह किस्म फफूंदी उकठा रोग के प्रति मध्यम प्रतिरोधी एवं कटुवा कीट के प्रति सहनशील है । यह बरानी एवं अर्धसिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। इस किस्म की उत्पत्ति जे.जी. 74 x आई.सी.सी.एल.-83105 से हुई है एवं यह 110-115 दिनो मे पककर 15-20 क्विं./हे. उपज देती है।
वैभव : इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 110-115 दिन में पक जाती है। दाना बड़ा, झूर्रीदार तथा कत्थई रंग का होता है। दानों में 18 प्रतिशत प्रोटीन होता है। उतेरा के लिए भी उपयुक्त होता है। यह अधिक तापमान, सूखा और उकठा निरोधक किस्म है जो सामान्यतौर पर 15 क्विं. तथा देर से बोने पर 13 क्विं. प्रति हेक्टेयर उपज देता है।
ग्वालियर -2 : इसका दाना हल्का, भूरे रंग का होता है। यह जाति 125 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी पैदावार लगभग 12 से 15 क्विं./हे. होती है। इसके दाने में 18 प्रतिशत प्रोटीन होता है।
उज्जैन -24 : इसका दाना पीला भूरा होता है। यह लगभग 123 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी उपज लगभग 10 से 13 क्विं./हे. होती है। इसके दाने में प्रोटीन 19 प्रतिशत रहता है।
जे.जी. 315 : यह किस्म 125 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत उपज 12 से 15 क्विं./हे. है इसके 100 दानों का वजन 15 ग्राम है एवं बीज का रंग बादामी तथा देर से बोने हेतु उपयुक्त किस्म है।
विजय : सर्वाधिक उपज देने वाली 90-105 दिन में तैयार होने वाली किस्म है । यह किस्म सिंचित व असिंचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त है। अधिक शाखायें व मध्यम ऊॅचाई वाले पौधे होते है। उपज क्षमता 24-45 क्विं./हे. है।
काबूली चना : छत्तीसगढ़ में इसकी खेती सिंचित दशा में ही की जा सकती है पर प्रति हेक्टेयर पौध संख्या का बराबर न होना प्रान्त में खेती को बढ़ावा नहीं दे रहा है।
एल 550 : यह 140 दिनों में पकने वाली किस्म है। इसकी उपज 10 से 13 क्विं./हे. है इसके 100 दानों का वजन 24 ग्राम है।
सी -104 : यह किस्म 130-135 दिन में पककर तैयार हो जाती है। एवं औसतन 10 से 13 क्विं./हे. उपज देती है। इसके 100 दानों का वजन 25-30 ग्राम होता है।
बोवाई का समय :
असिंचित क्षेत्र में – सितम्बर के आखिरी सप्ताह एवं अक्टूबर के तीसरी सप्ताह में करनी चाहिए।
सिंचित क्षेत्र (पछेती) दिसम्बर के तीसरे सप्ताह तक अवश्य सम्पन्न कर लेना चाहिए।
बीज दर : समय पर बोवाई के लिए 75-80 कि.ग्रा./हे.
देषी चना (मोटा दाना) 80 -100 कि.ग्रा/हे.
काबुली चना (मोटा दाना) 100-120 कि.ग्रा./हे.
बीजोपचार : बीज को थायरम 2 ग्राम प्रति किलो बीज इसके अलावा उचित राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना आवश्यक है।
सिंचाई :
आमतौर पर चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है। चने की फसल के लिए कम जल की आवश्यकता होती है। चने में जल उपलब्धता के आधार पहली सिंचाई फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45 दिन बाद एवं दूसरी सिंचाई दाना भरने की अवस्था पर अर्थात बोने के 75 दिन बाद करना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक :
मूंग की 10 टन उपज देने वाली फसल भूमि से 40 कि.ग्रा. नत्रजन, 4-5 कि.ग्रा. स्फूर 10-12 कि.ग्रा. पोटाष ग्रहण कर लेती है। अत: अधिकतम उपज के लिए पोषक तत्वों की पूर्ति खाद एवं उर्वरकों के माध्यम से करना आवष्यक है। गोबर की खाद या कम्पोस्ट पाँच टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत की तैयारी के समय देना चाहिए। मूंग की फसल से अच्छी उपज लेने के लिए 20 किलों नत्रजन, 40 किलो स्फुर, 20 किलो पोटाष व 20 किलो सल्फर प्रति हेक्टेयर का उपयोग करना चाहिए। उर्वरक की पूरी मात्रा बोवाई के समय कूंड में बीज के नीचे 5-7 से.मी. की गहराई पर देना लाभप्रद रहता है। मिश्रित फसल के साथ मूंग की फसल को अलग से खाद देने की आवष्यकता नहीं रहती है।
कीट नियंत्रण :
कटुआ : चने की फसल को अत्यधिक नुकसान पहुँचाता है। इसकी रोकथाम के लिए 20 कि.ग्रा./हे. की दर से क्लोरापायरीफॉस भूमि में मिलाना चाहिए।
फली छेदक : इसका प्रकोप फली में दाना बनते समय अधिक होता हैं नियंत्रण नही करने पर उपज में 75 प्रतिशत कमी आ जाती है। इसकी रोकथाम के लिए मोनाक्रोटोफॉस 40 ई.सी 1 लीटर दर से 600-800 ली. पानी में घोलकर फली आते समय फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
चने के उकठा रोग नियंत्रण:
उकठा रोग निरोधक किस्मों का प्रयोग करना चाहिए।
प्रभावित क्षेत्रो में फल चक्र अपनाना लाभकर होता है।
प्रभावित पोधा को उखाडकर नष्ट करना अथवा गढ्ढे में दबा देना चाहिये।
बीज को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम या ट्राइकोडर्मा विरडी 4 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिए।
उपज एवं भण्डारण :
चने की शुध्द फसल को प्रति हेक्टेयर लगभग 20-25 क्विं. दाना एवं इतना ही भूसा प्राप्त होता है। काबूली चने की पैदावार देशी चने से तुलना में थोडा सा कम देती है। भण्डारण के समय 10-12 प्रतिशत नमी रहना चाहिए।
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