Problems in Medicinal Farming पहले खोजिए हल, तभी सुनहरा कल
औषधीय पौधों की खेती से आजीविका सृजन की सोच तभी हकीकत की जमीन पर उग सकती है, जब इसकी खेती की राह में आने वाली बुनियादी अड़चनों की पड़ताल कर प्राथमिकता से उनके हल खोजे जाएं। इस विजन में कोई शक नहीं कि औषधीय पौधों की खेती न केवल भारत की कृषि आर्थिकी का चेहरा बदल कर रोजगार एवं आजीविका सृजन के लिए वरदान साबित हो सकती है, बल्कि आयुर्वेद में भारत को दुनिया का सिरमौर बना सकती है। असीम संभावनाएं के इस आकाश में ऊंची उड़ान तभी भरी जा सकती है,जब धरातल की जमीन पर पूरी तैयारी हो।
पोस्ट हार्वेटिंग तकनीक
वर्तमान में आलम यह है कि जड़ी- बूटियों की खेती के लिए उदार वित्तीय अनुदान तो दिया जा रहा है, लेकिन अगर बात बीज व क्वालिटी प्लांटिंग मैटीरियल की हो तो हमारे हाथ खाली हैं। हम बीज और पौध का प्रबंध करना भूल गए हैं। जिन औषधीय पौधों की बाजार में मांग है, उनकी वैल्यू एडिशन के लिए उपकरणों की व्यवस्था भी अभी तक दूर की कौड़ी है। पोस्ट हार्वेटिंग तकनीकों की कमी यहां साफ खलती है।
मार्केटिंग मकैनिज्म
अगर कोई किसान जड़ी- बूटियों की खेती करने की पहल करे भी तो उत्पाद को बेचने की व्यवस्था इतनी लचर है कि उसे बेचारा बनना पड़ता है। अभी तक न जड़ी- बूटियों के न्यूनतम मूल्य घोषित करने के प्रस्ताव सिरे चढ़े हैं और न इन उत्पादों की ब्रिकी के लिए विशेष मंडियों अथवा कलेक्शन सेंटर की कोई व्यवस्था हो पाई है। ऐसे में जड़ी- बूटियों के उत्पादकों को बिचौलियों के हाथों लुटने को मजबूर होना पड़ रहा है। आयुर्वेद दवाईयां बनाने वाली कंपनियां भी किसानों की उपज को न्यूनतम मूल्य पर खरीद कर उनके शोषण में कहीं पीछे नहीं हैं।
लीगल प्रिक्योरमेंट सार्टिफिकेट
पहाड़ों से लुप्त और लुप्तप्राय हो रहे दिव्य औषधीय पौधों के संरक्षण और उनकी ख्ेाती करने में अलग तरह की समस्याएं हैं। यहां लीगल प्रिक्योरमेंट सार्टिफिकेट की बाध्यता की शर्त किसानों की राह की सबसे बड़ी रूकावट है। जड़ी- बूटियों की खेती का जिम्मा तो आयुष विभाग के पास है, लेकिन लीगल प्रिक्योरमेंट सार्टिफिकेट वन विभाग की ओर से जारी किया जाता है। यह किसी से छुपा नहीं है कि इन दोनों विभागों में आपसी तालमेल के अभाव में यह सार्टिफिकेट हासिल करना किसानों के लिए कितनी टेढ़ी खीर है।
जमीन के मुद्दे
हिमालयी क्षेत्र जहां उच्च मूल्य वाले औषधीय पौधों की खेती हो सकती है, वहां के किसानों का दुखड़ा दूसरा है। इन क्षेत्रों में जहां ज्यादातर भूमि वन भूमि है, वहीं किसानों के पास छोटी भू जोतें हैं। वन भूमि पर जड़ी- बूटियों की खेती के लिए स्थानीय लोगों को अधिकार देने जैसे पेचीदा मुद्दों के हल खोजना अभी तक बाकि हैं।
किसान की मदद की जरूरत
बेशक आयुर्वेद का बाजार तेजी से आकार ले रहा है व जड़ी- बूटियों की मांग तेजी से बढ़ रही है। हिमालय की दिव्य औषधियां अपनी गुणवता के चलते आयुर्वेद उद्योग की पहली पंसद बन चुकी हैं, लेकिन जड़ी- बूटियों की वैल्यू चेन की पहली पायदान पर खड़े किसान के सामने समस्याओं का पहाड़ खड़ा है। अगर इस वैल्यू चेन की नींव ही खोखली है तो फिर इस पर आयुर्वेद उद्योग की बुलंद इमारत कैसे खड़ी हो सकती है? किसान को नजरअंदाज करना आयुर्वेद उद्योग के भविष्य के लिए संकट की बात है। जड़ी-बूटियों की खेती से लेकर उनके विपणन की व्यवस्था में किसान के हितों की पैरवी किए बिना आगे की सोचना कपोल कल्पना ही होगी।
तालमेल जरूरी
जैव विविधिता के संरक्षण व जड़ी- बूटियों की मूल्य श्रृखंला को मजबूत करने के लिए सबसे पहले तो आयुष विभाग के साथ वन, स्वास्थ्य, कृषि व बागवानी, राजस्व और सहकारिता जैसे कई विभागों को एकजुट होकर संाझा प्रयास करने होंगे। इसमें दो राय नहीं कि किसानों की कृषि आय को दोगुणा करना संभव है, लेकिन इसके लिए उन्हें औषधीय पौधों की खेती की ओर मोडऩा होगा। किसान इस तरफ मुड़ेंगे तभी, जब उन्हें लगेगा कि उनके लिए फायदे का सौदा है। आखिर में इतना ही कहूंगा कि पहले खोजिए हल, तभी होगा सुनहरा कल।
डॉ. अरुण चन्दन
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