Green Manure
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परिचय
मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग अति प्राचीन काल से आ रहा है। सघन कृषि पद्धति के विकास तथा नकदी फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चय ही कमी आई, लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट, उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि तथा गोबर की खाद जैसे अन्य कार्बनिक स्त्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्व और भी बढ़ गया है। दलहनी एवं गैर दलहनी फसलों को उनके वनस्पतिक वृद्धि काल में उपयुक्त समय पर मृदा उर्वरता एवं उतपादकता बढ़ाने के लिए जुताई करके मिट्टी में अपघटन के लिए दबाना ही हरी खाद देना है। भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का महत्व सदैव रहा है। ये फसलें अपने जड़ ग्रन्थियों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु द्वारा वातावरण में नाइट्रोजन का दोहन कर मिट्टी में स्थिर करती है। आश्रित पौधे के उपयोग के बाद जो नाइट्रोजन मिट्टी में शेष रह जाती है उसे आगामी फसल द्वारा उपयोग में लायी जाती है। इसके अतिरिक्त दलहनी फसलें अपने विशेष गुणों जैसे भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने प्रोटीन की प्रचुर मात्रा के कारण पोषकीय चारा उपलब्ध कराने तथा मृदा क्षरण के अवरोधक के रूप में विशेष स्थान रखती है।
हरी खाद में प्रयुक्त दलहनी फसलों का महत्व:
दलहनी फसलों की जड़ें गहरी तथा मजबूत होने के कारण कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी उगती है। भूमि को पत्तियों एवं तनों से ढक लेती है जिससे मृदा क्षरण कम होता है। दलहनी फसलों से मिट्टी में जैविक पदार्थों की अच्छी मात्रा एकत्रित हो जाती है। हरी खाद के प्रयोग से मिट्टी नरम होती है, हवा का संचार होता है, जल धारण क्षमता में वृद्धि, खट्टापन व लवणता में सुधार तथा मिट्टी क्षय में भी सुधार आता है| भूमि को को इस खाद से मृदा जनित रोगों से भी छुटकारा मिलता है| किसानों के लिए कम लागत में अधिक फायदा हो सकता है, स्वास्थ और पर्यावरण में भी सुधार होता है| राइजोबियम जीवाणु की मौजूदगी में दलहनी फसलों की 60-150 किग्रा० नाइट्रोजन/हे० स्थिर करने की क्षमता होती है।दलहनी फसलों से मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में प्रभावी परिवर्तन होता है जिससे सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता एवं आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।
हरी खाद हेतु फसलों का चुनाव :
हरी खाद के लिए उगाई जाने वाली फसल का चुनाव भूमि जलवायु तथा उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए। हरी खाद के लिए फसलों में निम्न गुणों का होना आवश्यक है।
- हेतु फसल शीघ्र वृद्धि करने वाली हो।
- हरी खाद के लिए ऐसी फसल होना चाहिए जिससे तना, शाखाएं और पत्तियॉ कोमल एवं अधिक हों ताकि मिट्टी में शीघ्र अपघटन होकर अधिक से अधिक जीवांश तथा नाइट्रोजन मिल सके।
- फसलें मूसला जड़ों वाली हों ताकि गहराई से पोषक तत्वों का अवशोषण हो सके। क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं में गहरी जड़ों वाली फसल अंतः जल निकास बढ़ाने में आवश्यक होती है।
- दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु ग्रंथियों वातावरण में मुक्त नाइट्रोजन को योगिकीकरण द्वारा पौधों को उपलब्ध कराती है।
- फसल सूखा अवरोधी के साथ जल मग्नता को भी सहन करती हों
- रोग एवं कीट कम लगते हो तथा बीज उत्पादन को क्षमता अधिक हो।
- हरी खाद के साथ-2 फसलों को अन्य उपयोग में भी लाया जा सके।
- हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनई, ढैंचा, उर्द, मॅूग, अरहर, चना, मसूर, मटर, लोबिया, मोठ, खेसारी तथा कुल्थी मुख्य है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में जायद में हरी खाद के रूप में अधिकतर सनई, ढैंचा, उर्द एवं मॅूग का प्रयोग ही प्रायः प्रचलित है।
हरी खाद हेतु फसलें एवं उन्नतशील प्रजातियॉ
नरेन्द्र सनई-1 कार्बनिक पदार्थ से भरपूर भूमि में 45 दिन के बाद पलटने से 60-80 किग्रा०/हे० नाइट्रोजन प्रदान करने वाली शीघ्र जैव अपघटन पारिस्थितकीय मित्रवत 25-30 टन/हे० हरित जैव पदार्थ बीज उत्पादन क्षमता 16.0 कु०/हे० प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रंथियॉ अम्लीय, एवं सामान्य क्षारीय भूमि के लिए सहनशील तथा हरी खाद के अतिरिक्त रेशे एवं बीज उत्पादन के लिए भी उपयुक्त।
पंत ढैंचा-1 कार्बनिक पदार्थों से भरपूर 60 दिन में हरित एवं सूखा जैव पदार्थ, प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रन्थियॉ तथा अधिक बीज उत्पादन।
हिसार ढैंचा-1 कार्बनिक पदार्थो से भरपूर, 45 दिन में अधिक हरित एवं सूखा जैव पदार्थ उत्पादन, मध्यम बीज उत्पादन, प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रन्थियॉ। उपरोक्त प्रजातियॉ वर्ष 2003 में राष्ट्रीय स्तर पर विमोचित की गयी है। इन प्रजातियों के बीज की उपलब्धता सुनिश्चित न होने पर सनई एवं ढैंचा की अन्य स्थानीय प्रजातियों का भी प्रयोग हरी खाद के रूप में किया जा सकता है।उर्वरक प्रबन्ध हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली दलहनी फसलों में भूमि में सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता बढ़ाने के लिए विशिष्ट राइजोबियम कल्चर का टीका लगाना उपयोगी होता है। कम एवं सामान्य उर्वरता वाले मिट्टी में 10-15 किग्रा० नाइट्रोजन तथा 40-50 किग्रा० फास्फोरस प्रति हे० उर्वरक के रूप में देने से ये फसलें पारिस्थिकीय संतुलन बनाये रखने में अत्यन्त सहायक होती हैहरी खाद की फसलों की उत्पादन क्षमताहरी खाद की विभिन्न फसलों की उत्पादन क्षमता जलवायु, फसल वृद्धि तथा कृषि क्रियाओं पर निर्भर करती है। विभिन्न हरी खाद वाली फसलों की उत्पादन क्षमता निम्न सारणी में दी गयी है
हरी खाद वाली फसलों की उत्पादन क्षमता
फसल का नाम | हरे पदार्थ की मात्रा (टन प्रति हे.) | नाइट्रोजन का प्रतिशत | प्राप्त नाइट्रोजन
(किग्रा.प्रति हे.) |
सनई | 20-30 | 0.43 | 86-129 |
ढैंचा | 20-25 | 0.42 | 84-105 |
उर्द | 10-12 | 0.41 | 41-49 |
मूंग | 8-10 | 0.48 | 38-48 |
ग्वार | 20-25 | 0.34 | 68-85 |
लोबिया | 15-18 | 0.49 | 74-88 |
कुल्थी | 8-10 | 0.33 | 26-33 |
नील | 8-10 | 0.78 | 62-78 |
हरी खाद देने की विधियॉ (इन सीटू)
हरी खाद की स्थानिक विधि:
इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है जिसमें हरी खाद का प्रयोग करना होता है। यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है। इस विधि में फूल आने के पूर्व वानस्पतिक वृद्धि काल (40-50 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है। मिश्रित रूप से बोई गयी हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दबा दिया जाता है।
हरी पत्तियों की हरी खाद:
इस विधि में हरी पत्तियों एवं कोमल शाखाओं को तोडकर खेत में फैलाकर जुताई द्वारा मृदा में दबाया जाता है। जो मिट्टी मे थोड़ी नमी होने पर भी सड जाती है। यह विधि कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उपयोगी होंती है।
हरी खाद की गुणवत्ता बढाने के उपाय
उपयुक्त फसल का चुनाव :
जलवायु एवं मृदा दशाओं के आधार पर उपयुक्त फसल का चुनाव करना आवश्यक होता है। जलमग्न तथा क्षारीय एवं लवणीय मृदा में ढैंचा तथा सामान्य मृदाओं में सनई एवं ढैंचा दोनों फसलों से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद प्राप्त होती है। मॅूग, उर्द, लोबिया आदि अन्य फसलों से अपेक्षित हरा पदार्थ नहीं प्राप्त होता है।
हरी खाद की खेत में पलटायी का समय:
अधिकतम हरा पदार्थ प्राप्त करने के लिए फसलों की पलटायी या जुताई बुवाई के 6-8 सप्ताह बाद प्राप्त होती है। आयु बढ़ने से पौधों की शाखाओं में रेशे की मात्रा बढ़ जाती है जिससे जैव पदार्थ के अपघटन में अधिक समय लगता है।
हरी खाद के प्रयोग के बाद अगली फसल की बुवाई या रोपाई का समय:
जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है वहॉ जलवायु नम तथा तापमान अधिक होने से अपघटन क्रिया तेज होती है। अतः खेत में हरी खाद की फसल के पलटायी के तुरन्त बाद धान की रोपाई की जा सकती है। लेकिन इसके लिए फसल की आयु 40-45 दिन से अधिक की नहीं होनी चाहिए। लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में ढैंचे की 45 दिन की अवस्था में पलटायी करने के बाद धान की रोपाई तुरन्त करने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है।
समुचित उर्वरक प्रबन्ध:
कम उर्वरता वाली मृदाओं में नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का 15-20 किग्रा०/हे० का प्रयोग उपयोगी होता है। राजोबियम कल्चर का प्रयोग करने से नाइट्रोजन स्थिरीकरण सहजीवी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।
हरी खाद वाली फसलें:
हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनैइ (सनहेम्प), ढैंचा, लोबिया, उड़द, मूंग, ग्वार आदि फसलों का उपयोग किया जा सकता है। इन फसलों की वृद्धि शीघ्र, कम समय में हो जाती है, पत्तियाँ बड़ी वजनदार एवं बहुत संख्या में रहती है, एवं इनकी उर्वरक तथा जल की आवश्यकता कम होती है, जिससे कम लागत में अधिक कार्बनिक पदार्थ प्राप्त हो जाता है। दलहनी फसलों में जड़ों में नाइट्रोजन को वातावरण से मृदा में स्थिर करने वाले जीवाणु पाये जाते हैं। अधिक वर्षा वाले स्थानों में जहाँ जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सनई का उपयोग करें, ढैंचा को सूखे की दशा वाले स्थानों में तथा समस्याग्रस्त भूमि में जैसे क्षारीय दशा में उपयोग करें। ग्वार को कम वर्षा वाले स्थानों में रेतीली, कम उपजाऊ भूमि में लगायें। लोबिया को अच्छे जल निकास वाली क्षारीय मृदा में तथा मूंग, उड़द को खरीफ या ग्रीष्म काल में ऐसे भूमि में ले जहाँ जल भराव न होता हो। इससे इनकी फलियों की अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है तथा शेष पौधा हरी खाद के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है।
डॉ. शिशुपाल सिंह*, शिवराज सिंह1, डॉ विष्णु दयाल राजपूत2रविन्द्रकुमारराजपूत3,
*प्रयोगशाला प्रभारी, कार्यालय मृदा सर्वेक्षण अधिकारी, वाराणसी मंडल, वाराणसी,
1पर्यावरण इंजीनियर, ग्लोबस पर्यावरण इंजीनियरिंग सेवा, लखनऊ
2पोस्टडॉक्टोरलसाहचर्य, रूस
3एस एम एस, कृषि विज्ञान केन्द्र, मथुरा
Note
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