Declining level of Indian agriculture
भारत एक कृषि प्रधान देश है तथा इसके इतिहास में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान है। पुरातन काल से ही कृषि का भारतवासियों के जीवन में एक विशेष महत्व रहा है। कृषि को भारत की आधारशिला एवं अर्थव्यवस्था का केन्द्रबिन्दु कहा जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति की बात नहीं होगी, क्यूंकि कृषि ही हमारे देश का आधार, रोजगार का प्रमुख स्रोत तथा विदेशी मुद्रा के अर्जन का माध्यम है। अतः कृषि के विकास, समृद्धि व उत्पादकता पर ही देश का विकास व सम्पन्नता निर्भर है। स्वतन्त्रता के पश्चात कृषि को देश की आत्मा के रूप में स्वीकार किया गया था। कृषि को भारत में सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करते हुए भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र को विकसित करने एवं कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने हेतु अनेक कार्यक्रमों, नीतियों व योजनाओं के संचालन की प्रतिक्रिया शुरु की थी । इसके अंतर्गत सरकार द्वारा कई कार्यक्रमों का आगमन किया गया, जिससे किसानों को भूमि का मालिकाना हक प्राप्त हो सके एवं उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आ सके। स्वतंत्रता के ६० साल बाद भी किसानों की स्थिति स्तिथि में सुधार नहीं आ पाया है, जो कि अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। इसके कुछ मुख्य कारण निम्न हैं:
गरीबी एवं ऋणग्रस्तता
गरीबी तथा ऋणग्रस्तता हमारे देश के किसानों की एक बड़ी समस्या है। जिसके प्रमुख कारण हैं , सरकार द्वारा समय पर अधिकांश फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण न होना तथा उचित परिवहन की व्यवस्था न होना, जिसके कारण किसान अपनी खून पसीनें से उगाई उपज को कम कीमतों पर बिचौलियों को बेचने के लिए बाध्य हैं। इससे उनका आर्थिक स्तर और नीचे गिरता जा रहा है। अभी हाल ही में भारत सरकार नें मुख्य-मुख्य फसलों के समर्थन मूल्य में वृद्धि की है
सामाजिक प्रथाएं
हमारे देश में कई प्रकार के अंधविश्वास एवं कुप्रथाएं चली आ रहीं हैं। हमारे देश के किसानों का एक वर्ग अनपढ़ है, जिन्हे आधुनिक तकनीकों का कोई ज्ञान नहीं है। वह आधुनिक तकनीकों तकनीको को छोड़कर अपनी फसलों की उन्नत उपज के लिए दैवी शक्तियों पर भरोसा करता है, जिसके परिणामस्वरूप किसानों को अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा इन्ही आडम्बरों पर खर्च करना पड़ता है, जो उसकी गरीबी को और बढ़ा देता है।
बढ़ती जनसँख्या तथा औद्योगीकरण
भारत के कृषि दर में गिरावट का मुख्य कारण बढ़ती जनसँख्या का भार भी है। १९०१ में १६.३० करोड़ लोग भारत में कृषि पर आश्रित थे पर अब यह संख्या बढ़ कर १२५ करोड़ हो चुकी है। बढ़ती जनसँख्या के कारण उपजाऊ भूमि का प्रयोग मकान बनाने में तथा उंद्योग लगाने में हो रहा है जिससे और खेती योग्य जमीन कम हो रही है। इसकी वजह से छोटे और सीमांत किसानों की संख्या में बृद्धि हो रही है। इस दबाव में कृषि का उन्नत होना और भी कठिन होता जा रहा है। अल्प उत्पादकता के घटकों को चित्र 1 में दर्शाया गया है तथा इन घटकों को विस्तार से समझाने का प्रयास आलेख में आगे किया गया है।
चित्र 1 भारतीय कृषि में अल्प उत्पादकता के घटक
- तकनीकी कमियां
- खेती के पुराने उपकरण: पुराने खेती के औजार, जुताई के उचित विधियों का उपयोग न होना, हाथ से बीज बोना, जंगली घास का अपर्याप्त निवारण तथा पुराने सिचाई के साधन भी कृषि के उत्पादन में कमी लाने में कारगर हैं।
- प्राकृतिक आपदाएं : फसलों का फसल चक्र पूरा करने के लिए उचित वातावरण का होना अनिवार्य है। भारतीय कृषि की बेहाल हालत का एक मुख्य कारण है, प्राकृतिक आपदाएं जैसे; बाढ़, सूखा इत्यादि, जिनमें करोड़ो रुपयों की फसलें हर साल बर्बाद हो जाती हैं।
- अपर्याप्त सिचाई: भारत में कृषि मुख्यतः वर्षा पर निर्भर करती है। यहाँ सभी फसलों की उपजता पानी पर निर्भर है, जबकि कुछ फसलें बिना पानी के भी उगाई जा सकती हैं।
- स्वतंत्रता के ६० साल बाद भी हमारे केवल ४०% भाग को ही सिचाई की सुविधा उपलब्ध है। यह भी एक मुख्य कारण है; खेती में अग्रसर न हो पाने का।
- मिट्टी की समस्या : भारत में मिट्टी से सम्बंधित कई दिक्कतें हैं, जैसे की मृदा अपरदन, जल भराव, उर्वरकता की कमी, मृदा का खारापन आदि। मिट्टी की सही पहचान कर उपयुक्त फसल लगाकर उत्पादकता बधाई जा सकती है।
- फसलों में कीड़े और बीमारियां होना: हमारे देश में कई प्रकार की बीमारियों ने फसलों को घेरा हुआ है। इसी में कई प्रकार के कीड़े एवं जीव जंतु भी शामिल है, जो फसलों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। जिनके निवारण हेतु किसान कई प्रकार के कीटनाशकों का प्रयोग बिना जानकारी के करते हैं जिसकी उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
- कमज़ोर पशुपालन: भारत की कृषि में पशुपालन का महत्वपूर्ण स्थान है, कमज़ोर पशुओ की देखभाल में किसानों को अधिक पैसा लगाना पड़ता है, जिससे की कृषि पर लगने वाला भाग पशुपालन में ही चला जाता है।
- उधार की सुविधा: खेती करने के लिए फसल की बुवाई से लेकर कटाई तक वक़्त-वक़्त पर जैसे सिचाई, खाद, खरपतवार पर नियंत्रण तथा कीटनाशक का उपयोग के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है। सीमांत तथा छोटे किसान जिनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है, उनके लिए कम ब्याज दरों पर उधार की व्यवथा अनिवार्य होनी चाहिए, जबकि हमारे किसानों को उधार रकम की लिए महाजन और साहूकारों पर आश्रित रहना पड़ता है, जोकि भारी मात्रा में ऋण वसूल करते हैं। परिणामतः उचित लागत ना लगाने से फसलों का उत्पादन कम हो जाता है और कमाई में भारी गिरावट आती है। इधर कुछ समय से किसानो को बैंकों से जोड़ा जा रहा है जिससे इस समस्या का निदान हो जाए गा।
- उच्च पैदावार विविधता वाले बीजों की कमी: विज्ञानं एवं रिसर्च की भारी खोजो के बावजूद भी किसानों में इन किस्मों के बारे में जानकारी की कमी है। इनके बीजों को खरीदना उनके लिए मंहगा है। विभिन्न फसलों के उचित बीजों की जानकारी तथा वितरण होने से उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।
- अनुचित विपणन: किसानों को सही बाजार का ज्ञान न होना भी उनकी आय में कमी, फलतः कृषि की ख़राब हालत के लिए ज़िम्मेदार है। वह अपने उपज का सही दाम नही ले पाता है। विपणन तथा यातायात के साधनों की पूरी जानकारी के बिना उसे अपना वही अनाज कम दामों पर बेचना पड़ता है; जिससे वह अधिक लाभ कमा सकता था। अनाज के सम्यक भंडारण हेतु गोदामों की सुविधा न होने से वो अपनी फसल को अधिक समय तक सुरक्षित प्रकार से भंडारित करके नहीं रख पाता है।
- संस्थागत कारण: इनमें मुख्य हैं, छोटी जोत का आकार, भूमि अधिग्रहण और भूमि व्यवस्था
- छोटे खेत: भारत में खेतों के अकार छोटे हैं। देश के ८०% किसानों के पास २ हेक्टेयर से भी कम अकार के खेत हैं, जिसके कारण मशीनों का उपयोग करना मुश्किल हो जाता है। इसी की वजह से पूर्णतया सिचाई भी नहीं हो पाती, जोकि कृषि को प्रभावित करती है।
कृषि शोध:
यद्यपि विक्सित देशों की अपेक्षा हमारे देश में कृषि शोध और शिक्षा पर स्धिक दयां नहीं दिया जा सका है; तथापि विकासशील देशों के मुकाबले हमारे देश में कृषि शोध पर अपेक्षाकृत एक भारी रकम लगाने के बावजूद हमारे किसानों और गरीबों तक उसका फायदा नहीं पहुंच पा रहा है। इसका मुख्य कारण है शोध संस्थानों एवं किसानों के बीच समन्वय की कमी। भारत के कृषि और किसान मंत्रालय के अधीन विभिन्न प्रादेशिक सरकारों में कृषि विभाग, पशुपालन विभाग, मत्स्य पालन विभाग और एनी सम्बंधित विभागों के साथ साथ कृषि सूचना एवं प्रसार विभाग भी कार्य रत हैं। परन्तु शोध के परिणामों को कृषकों के प्रक्षेत्रों पर ले जाने के लिए जो विभाग बने हैं जैसे कृषि प्रसार विभाग; वे अपना कार्य ठीक ढंग से नहीं कर पा रहे हैं जिस का खामियाजा हमारे किसानो को भुगतना पड़ रहा है। वहीं पर वैज्ञानिकों से शोध करने व शोध को किसानो तक पहुंचाने का भी कार्य कराया जा रहा है जिससे शोध हेतु पर्याप्त समय नहीं मिल पाने से भारतीय शोध की गुणवत्ता नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है।
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भूमि अधिकार नियम:
ज़मींदारी प्रथा हमारे देश में कृषि की बेहाली का मुख्य कारण है। इसमें खेती करने वाला किसान किराया दे कर ज़मीन लेता है। किसान अपनी मेहनत से उगाई फसल का केवल ऋण ही चुकाता रहता है और ब्याज के बोझ के नीचे दबता रहता है। स्वतंत्रता के बाद यह प्रथा समाप्त कर दी गई थी फिर भी किसानों की हालत में सुधार नहीं हो पाया है।
भारतीय कृषि में सुधार लाने के प्रयास
भारत सरकार की नीतियाँ तथा पहल
- प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना
- फसल बीमा योजना
- जन धन खाता और कृषिगत ऋण की सुविधा
- फसलों के उचित समर्थन मूल्य की घोषणा
- फसल उत्पाद क्रय केन्द्रों की स्थापना
- उत्पादों के निर्यात हेतु संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना
- मूल्य संवर्धन तथा विभन्न प्रकार के उत्पाद बनाने हेतु प्रोत्साहन
शोध संस्थानों द्वारा अग्रणीय कार्य
चिन्ता का विषय यह है कि देश में प्रति वर्ष 21 प्रतिशत फसल कीड़े-मकोड़े व बीमारियों के कारण नष्ट हो जाती है, जिसको नियन्त्रित करने हेतु ‘पौध संरक्षण कार्यक्रम’ की स्थापना की गई है तथा कीटाणुनाशक दवाइयों के उपयोग पर बल दिया गया है। कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी बनने तथा उत्पादकता बढ़ाने हेतु कृषि में ‘यन्त्रीकरण’ को प्रोत्साहित किया गया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसानों को कम ब्याज दर पर ट्रैक्टर, पम्पसेट व मशीनरी आदि खरीदने के लिए आसान ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में फसलों की उर्वरकता बढाने के लिए ‘समेकित जीवनाशी प्रवंधन’ तथा
‘फसल का चक्रिकरण’ पर बल दिया है। इसी दिशा में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् के विभिन्न सस्थानों ने अलग अलग फसलों के लिए अधिक उद्पदन वाले बीजों की किस्मो का भी विकास किया है।
किसानों की मार्मिक स्थिति
का निरूपण और व्याख्या मात्र एक ही पृष्ट में कर पाना मुश्किल है। सरकार कई वर्षो से किसानों की आत्महत्या के आंकड़े जमा कर रही है, जिसके मुताबिक हर साल 12 हजार किसान अपनी जिंदगी खत्म कर रहे हैं। कर्ज में डूबे और खेती में हो रहे घाटे को किसान बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। हमारी सरकार द्वारा किए गए प्रयासों के बावजूद किसानों की समस्या एवं आत्महत्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। यद्यपि तमाम राजनीतिक दलों द्वारा मीडिया मंचों पर किसानों की दुर्दशा का व्याख्यान होता आ रहा है, पर उसमें समाधान की कोई चर्चा नहीं होती है। इससे यही लगता है कि यह समस्या वर्तमान समय में सबसे अधिक बिकाऊ विषय बनकर रह गयी है।
भारतीय कृषि
जोखिमभरा है यह कहना गलत नहीं होगा। हमारी सरकार इस दिशा की ओर निरंतर प्रयास कर रही है, पर फिर भी किसानों की स्थिति में सुधार आने में देर हो रही है। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए सरकार ने कई कदम उठाये है जैसे; कृषि उत्पादों की कीमतों में वृद्धि करना। इसी प्रकार किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा प्रदान करने हेतु सरकार ‘फसल बीमा योजना’ प्रारम्भ कर रही है जिसके बाद में ‘व्यापक फसल योजना’ तथा वर्तमान में ‘राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना’ के रूप में क्रियान्वित किया जा रहा है। यही नहीं कृषिगत निर्यातों के विकास हेतु कृषि निर्यात क्षेत्रों को भी स्थापित किया गया है। तब भी हम आशा करते हैं कि आने वाले समय में भारत सरकार द्वारा उठाये गए उपरोक्त सभी कदम हमारे किसानों की स्तिथि में सुधार लाने में सहायक होंगे।
Note
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